जिन्दगी अधबनी / मोहन अम्बर
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क्या कहूँ, किस तरह और किसको कहूँ?
कौन है जो सुने ज़िन्दगी अधबनी।
पाँव देता रहा रोज़ ही राह को
मारता ही रहा मंजिली चाह को
और क्या-क्या किया इस डगर के लिए
पूछ लो हर गिरे की थमी बाँह को
फल मुझे पर दिया इस बड़े पुण्य नें
घूमता हूँ लिए आँख में जलकनी
कौन है, जो सुने ज़िन्दगी अधबनी।
क्या कहूँ...
हूँ प्रयासित बहुत काट लूँ ये सफर
सागरों, बादलों, पर्वतों से नगर
टूटती हरी तरी को तिराता रहा
पर मुझे वह डुबाती रही हर लहर
यह कथा इन तटों को पता है मगर
देख कर हँस रहे हैं मेरी मुर्दनी
कौन है जो सुने ज़िन्दगी अधबनी।
क्या कहूँ...
मैं कथा भी नहीं मैं व्यथा भी नहीं
गाँव में भी नहीं लापता भी नहीं
किस लिए क्यों धुंए-सा उड़ाया गया
कौन-सी है खता कुछ पता भी नहीं
दान दोनों करों से दिया था जिन्हें
भीख उनसे मुझे पड़ गई माँगनी
कौन है जो सुने ज़िन्दगी अधबनी।
क्या कहूँ...
हाट को जीतने के लिए सब किया
होंठ अपना सिया बेच सपना दिया
मैं बजाता रहा ख़ूब शहनाइयाँ
पर नहीं मर सका है अभी मर्सिया
सत्य के चिथड़े टाँगने के लिए
रिक्त है आज भी देह की अर्गनी
कौन है जो सुने ज़िन्दगी अधबनी
क्या कहूँ...