भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जिन्दगी का कारवाँ / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज़िन्दगी का कारवाँ रुकता नहीं, रुकता नहीं !

ये क्षणिक तूफ़ान तो आते गुज़र जाते,

केश केवल कुछ हवा में उड़ बिखर जाते !

पर, सतत गतिमय क़दम इंसान के कब डगमगाये ?

और ताक़त से इसी क्षण पैर जनबल ने उठाये !

ज़िन्दगी का कारवाँ यह

आफ़तों के सामने झुकता नहीं, झुकता नहीं !

रह नहीं सकती हमेशा यामिनी काली,

रोज़ फूटेगी नयी आकाश से लाली

देख कर जिसको, मनुज हर, दौड़ कर स्वागत करेगा,

पर, तिमिर से डर भयावह रुग्ण क्या साँसें भरेगा ?

ज़िन्दगी का कारवाँ यह

भाग्य के निर्मित सितारों को कभी तकता नहीं !

मेघ के टुकड़े सरीखा यह अकेलापन,

है बड़ा इससे कहीं चलता हुआ जीवन !

राह चाहे जल-विहीना, वृक्ष-हीना, रेतमय हो,

राह चाहे व्यक्तिहीना, घर-विहीना, ज्योति लय हो,

ज़िन्दगी का कारवाँ यह

हार कर संघर्ष-पथ पर भूल कर थकता नहीं !

जिस हृदय ने साफ़ अपना लक्ष्य देख लिया

वह तो बहाएगा सदा ही आस का दरिया !

लड़खड़ाता चल रहा जो, मौत की तसवीर है वह,

जो रुका है मध्य पथ में, रोग-वाहक नीर है वह,

ज़िन्दगी का कारवाँ यह

मिट निराशा की नदी में डूब बह सकता नहीं !

1952