जिन्दगी का कारवाँ / महेन्द्र भटनागर
ज़िन्दगी का कारवाँ रुकता नहीं, रुकता नहीं !
ये क्षणिक तूफ़ान तो आते गुज़र जाते,
केश केवल कुछ हवा में उड़ बिखर जाते !
पर, सतत गतिमय क़दम इंसान के कब डगमगाये ?
और ताक़त से इसी क्षण पैर जनबल ने उठाये !
ज़िन्दगी का कारवाँ यह
आफ़तों के सामने झुकता नहीं, झुकता नहीं !
रह नहीं सकती हमेशा यामिनी काली,
रोज़ फूटेगी नयी आकाश से लाली
देख कर जिसको, मनुज हर, दौड़ कर स्वागत करेगा,
पर, तिमिर से डर भयावह रुग्ण क्या साँसें भरेगा ?
ज़िन्दगी का कारवाँ यह
भाग्य के निर्मित सितारों को कभी तकता नहीं !
मेघ के टुकड़े सरीखा यह अकेलापन,
है बड़ा इससे कहीं चलता हुआ जीवन !
राह चाहे जल-विहीना, वृक्ष-हीना, रेतमय हो,
राह चाहे व्यक्तिहीना, घर-विहीना, ज्योति लय हो,
ज़िन्दगी का कारवाँ यह
हार कर संघर्ष-पथ पर भूल कर थकता नहीं !
जिस हृदय ने साफ़ अपना लक्ष्य देख लिया
वह तो बहाएगा सदा ही आस का दरिया !
लड़खड़ाता चल रहा जो, मौत की तसवीर है वह,
जो रुका है मध्य पथ में, रोग-वाहक नीर है वह,
ज़िन्दगी का कारवाँ यह
मिट निराशा की नदी में डूब बह सकता नहीं !
1952