मैं गया था द्वार पर, आशा सँजोये, प्यार पाने
पीर स्वर को सौंप, तुमने बाँसुरी धर दी अधर पर
पूर्णिमा की शबनमी मृदु-
चाँदनी की गंध पीते
इस उफनती उम्र के पल-
गुदगुदी से रिक्त बीते
था अनाड़ी, ताल-सुर के दु्रत-विलम्बित से अजाना
भाग्य से भटका न जाने किस व्यथा-भींगी डगर पर
जिन्दगी की कोख के-
आघात उद्गम निर्झरी के-
दे, विहँस कर बेध डाले-
रोम प्राणों की तरी के
छोड़ फिर मुझको दिया छू लूँ अतल तल वेदना का
पीर की मन्दाकिनी के मध्य नभचुम्बी लहर पर