जिन्हें होम कर दिया इस समय ने / राकेश रंजन
वे आती हैं मेरे क़रीब
रात के नीरव एकान्त में
बैठ जाती हैं मुझे घेरकर
उनका भीत मौन रुदन
निचोड़ देता है लहू मेरी देह का
अपनी ख़ाक चिताओं से उठकर
धुएँ के बगूलों-सी नाचती
बेचैन हनहनाती
वे आती हैं मेरे क़रीब
उनके आँसू
गिरते हैं मेरे सुख-सपनों पर
अंगारों की तरह
वे नोचती रहती हैं अपनी खोपड़ियाँ
उनसे बहती रहती है पीव फदफदाती
वे भँभोरती रहती हैं अपने सारे अंग दहकते सीझे
उनसे बहता रहता है ख़ून सफ़ेद गाढ़ा
वे पीटती रहती हैं ध्वस्त अपनी छातियाँ
उनसे झड़ती रहती है राख मेरे सीने पर
अन्धकार की तरह
मेरी निस्पन्द काया को झकझोरती
वे घूरती रहती हैं मुझे
अपनी आँखों के काले भयानक सुराखों से
मेरी युवा रात के स्वप्निल एकान्त में
रातरानी की ख़ुशबू नहीं आती
वे आती हैं
चिरायँध गन्ध के झोंकों-सी दुस्सह
जिन्हें होम कर दिया इस समय ने
हेम-हुताछान में हवि की तरह...