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जिसकी तलाश है हमें / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
सभी अपनी-अपनी वाह उछाल रहे हैं
और यह उछाल है गेंद की तरह
जबकि कान हो गए हैं गोलपोस्ट
यह अभ्यास है इसलिए
सभी को स्वीकारना पड़ेगा इन्हें कानों से
बिना भेद-भाव किए हुए
और जब निकलता है सच्चा नारा
आदमी हो जाता है चुपचाप
बिना किसी असुविधा के
होता है यह स्वीकार उसे
बार-बार सुनना चाहता है वह वैसे नारे
जो एक जोश पैदा कर देते हैं मन में
पुकारने लगते हैं वे खुद भी वैसे ही नारे
और सचमुच ऐसे ही नारों की
होती है तलाश हमें।