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जिसने अपने तन-मन-जीवन / हनुमानप्रसाद पोद्दार

जिसने अपने तन-मन-जीवन सौंप दिये प्रियको सानन्द।
जिसने सब अधिकार दे दिया इन्हें बरतनेका स्वच्छन्द॥
जिसको गले लगाकर प्रभुने किया समर्पण सब स्वीकार।
जिसको कहा-’प्राण तुम मेरी’, क्यों वह यों अब करे विचार?
कैसे वह दुखिया माने, क्यों समझे वह अपनेको दीन।
जिनके तन-मन, वे समझेंगे, भोगेंगे दुख-दैन्य मलीन॥
रखें शरीर, न रखें भले ही, रखें निकट अति, रखें सुदूर।
रखते वे अपने में नित ही, रहते स्वयं सदा भरपूर॥
जायें कहीं, मिलें, न मिलें वे, करें सदा सब कुछ विपरीत।
झंकृत होंगे, बस, उनमें ही कर्कश-मधुर सभी संगीत॥