जिसने सीखा त्याग / बाबा बैद्यनाथ झा
रहते सब आसक्त जगत से, जबतक रहता राग।
मानव तन सार्थक कर लेता, जिसने सीखा त्याग॥
प्रभु प्रदत्त सारी सुविधाओं, का करते उपभोग।
धन वैभव का करे उपार्जन, जबतक रहे निरोग।
होता लक्ष्य कमाना पैसा, करे न आसन योग।
कालान्तर में हो जाते हैं, कई भयानक रोग।
सबकुछ यहीं छोड़ना पड़ता, जिनसे था अनुराग।
मानव तन सार्थक कर लेता, जिसने सीखा त्याग॥
जिसके साथ बिताता बचपन, रहते दोनों संग।
खेलकूद में धमाचौकड़ी, करते रहे उमंग।
वही स्वार्थ में अंधा होकर, करने लगता तंग।
सुधा समझता था जिसको वह, निकला एक भुजंग।
डस लेता जब वही अचानक, बुझता दीप्त चिराग।
मानव तन सार्थक कर लेता, जिसने सीखा त्याग॥
नश्वर ही सब धन दौलत हैं, जग ही है निस्सार।
साथ नहीं कुछ भी जाता है, फिर जग से क्यों प्यार।
कीर्ति मात्र ही संग निभाती, जबतक है संसार।
इष्ट भक्ति ही करवा देती, भवसागर से पार।
त्याग भाव से भोगें जग को, मन में रखें विराग।
मानव तन सार्थक कर लेता, जिसने सीखा त्याग॥