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जिससे परम सुखी हों मेरे / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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जिससे परम सुखी हों मेरे एकमात्र वे परम श्रेष्ठ।
वही धर्म है, वही कर्म है, वही एक कर्तव्य श्रेष्ठ॥
फिर चाहे वह चिर बन्धन हो, हो चाहे तुरंत ही मोक्ष॥
हो चाहे अजान तमोमय, हो फिर भले जान अपरोक्ष॥
हो अनन्तकालीन स्वर्गसुख, चाहे नरक-यन्त्रणा घोर।
हो अशान्तिके बादल छाये, चाहे नित्य शान्ति सब ओर॥
हो अतिशय दारिद्र्‌य भले, हो चाहे अतिशय भोग-विलास।
हो चाहे कर्मोंका जीवन, चाहे पूर्ण कर्म-संन्यास॥
बन्ध-मोक्ष, अजान-जानसे, स्वर्ग-नरकसे नहिं सबन्ध।
रहा न भोगैश्वर्य, परम दारिद्र्‌य घोरका कुछ भी बन्ध॥
नहीं किसी में राग तनिक भी, नहीं किसी से भी वैराग्य।
प्रियतम का, बस, एकमात्र सुख ही मेरा जीवन, सौभाग्य॥