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जिससे सिसकती है फ़सल की ख़ुशबू / अर्चना लार्क
Kavita Kosh से
वह समय के पहिए में छेद करता
धीरे - धीरे पैर गड़ाता
कर्कशता से भिन्नाता
कोई नारा है
उसने भरी फ़ौज को शिकंजे में कसते
बन्दूकों की नली को
अपने आदेश के पहर में बाँध रखा है
देखते देखते हमारे रक्षक घुटनों के बल निरीह हो रहे हैं
उसके दिमाग़ की सनक आंखों तक आती
हाथों से होती
सीने पर प्रहार करती है
खून से भर जाता है शरीर
ये सब धीरे धीरे तय होता है
वह दुधमुँहा अहिंसक गौपालक बना अट्टहास करता है
जिससे सिसकती है फ़सल की ख़ुशबू
माँ की लोरी
प्रेमियों का प्रेम
देश प्रेम ।