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जिसे उन्होंने छीना है तुमसे / पवन करण

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जिसे उन्होंने छीना है तुमसे, जिसे वो
मेरा दिया बताते हैं, उसका बहुत हिस्सा
उन्होंने मढ़ दिया है मेरे भी सिर
अब मैं हिल-डुल तो सकता नहीं
उन्हें मना क्या खाकर करूँगा, उन्होंने
बेईमानी में अपनी मिला लिया है मुझे भी
जब से हूँ, मैं उन्हीं के कब्ज़े मैं हूँ
उन्हीं का ईश्वर हूँ, किसी काम का
न होते हुए भी उनके बड़े काम का हूँ

जो उन्होनें छीन लिया है तुमसे, सोचता हूँ
उसे तुम वापस क्यों नहीं लेते उनसे
अपनी ज़िंदगियाँ वापस लेने के लिए
लड़ते क्यों नहीं उनसे, न देने पर जब तक
वे मर नहीं जाते मारते क्यों नहीं उन्हें,
मारते हुए उन्हें मरते क्यों नहीं लड़कर
मुझे उखाड़कर दे क्यों नहीं मारते उनके सिर पर
ईश्वर होने से तो रहा कम से कम
अब मेरा पत्थर होना तो सार्थक हो जाए

दुख तो यह है इसके लिए तुम सब भी
मेरे भरोसे बैठे हो जबकि नहीं कर सकता
मैं कुछ भी, मैं अपनी नाक पर बैठी मक्खी
तो उड़ा नहीं पाता, उन्हें दण्ड क्या दूँगा
अरे मैं किसी लायक ही होता
तो ख़ुद को उनका बंधक होने देता
उन्हें अपने नाम पर खाने-कमाने देता
गर्दन पकड़कर नहीं मोड़ देता सबकी
हाँ, हाँ मैं ठीक कह रहा हूँ, अपने ग्लास
जल्दी खाली करो, या मेरा ग्लास भरो,

आज मुझे उसी ढाबे पर रोटी खिलाने
ले चलना जहाँ एक बार लड़ते हुए हमें
पुलिस ने पकड़ लिया था, फिर देर रात
गिड़गिड़ाने और जेबें खाली कराने के बाद
छोड़ा हमें, मुझ में तो उन्होनें दो-चार
बेंत भी जमा दिए, कारण एक तो अपुन
उस रोज़ भी नंगे थे और ऊपर से उनसे
ज़ुबान लड़ाए चले जा रहे थे, सो अलग

लड़ना तो तुम्हें ही होगी अपनी लड़ाई,
तुम उसे उनके साथ-साथ मुझे भी
चुनौती देते हुए लड़ो, लड़ो और तोड़ दो
यह भ्रम करने वाला भी मैं हूँ ही,
रचने वाला भी मैं ही हूँ
देने वाला भी मैं ही हूँ , यह कि
मेरी मर्ज़ी के बिना पत्ता नहीं हिलता,
और पत्ते, अपनी मर्ज़ी से कहाँ-कहाँ
हिलते-डुलते और उड़ते-फिरते हैं