भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जिसे न राह मालूम है भला क्या रहबरी देगा / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिसे न राह मालूम है भला क्या रहबरी देगा
तू धोखे में हो मंजिल का पता वह क्या सही देगा

धुआँ से भर गया घर अब अन्धेरा ही अन्धेरा है
जलाया था दिया मैंने कि मुझको रोशनी देगा

तू मुझसे कह रहे हो मैं यकीं कर लूं मगर सोचो
जो जीवन भर रहा रोते भला क्या वह खुशी देगा

वही सर पर तुम्हारे काँटों का भी ताज रक्खेगा
तुम्हारे हाथों में कचनार की जो भी कली देगा

कोई भी गम नहीं होता है सारी जिन्दगी भर का
अन्धेरे से न घबड़ाओ यही फिर चाँदनी देगा

दुआ माँगी थी मैंने आदमी की बस्ती हो हासिल
मुझे मालूम क्या था इस तरह दुख आदमी देगा

अभी तुमको भले ये लग रहा हो क्या करूंँगा मैं
यकीं रक्खो यही अमरेन्द्र इक दिन जिन्दगी देगा।