Last modified on 15 मई 2010, at 12:39

जिसे मैं पढ़ सकता था / लीलाधर मंडलोई

किसी पुराने खंडित बुर्ज सी भयावह सुंदरता
सघन वन अब उतने सघन नहीं
आदिवासी अब उतने आदिवासी नहीं
पोशाक-पहरावा तहजीब अब वैसा कुछ नहीं

कुछ अजीब से दृश्‍य और खबरें
जंगल में चोरियां
सई-सांझ गाडियों का लुटना
सरकारी कारिंदों की हत्‍या
चोर उचक्‍के, हत्‍यारे भील-भिलाले मरने-मारने पर उतारू

नहीं जानता कोई कि यह सब क्‍यों
सोचते ये सब उतरता हूं बस से यात्रि‍यों के हड़बोंग में
और देखता हूं दूर तक छितरी मटमैली खपरैल बस्‍ती

तेंदू, सलैया, चिरोंजी, आंवला और
कुछ आम और बांस के झुरमुट
बीच-बीच में स्‍याह चट्टानों के उत्‍तुंग माथ

यदा-कदा उन पर दिख जाता कोई पखेरू
दहाड़ते थे शेर कभी रात भर और
चीते थे आमदरफ्त यहां
कहते हैं बस कभी-कभार कोई भालू
शहद की तलाश में भटकता दिख जाए तो बहोत

खेतों में अब सांती, कुटकी और बाजरे की जगह
दूर तक फैला सोयाबीन का साम्राज्‍य
बस स्‍टेण्‍ड पर अपरिचित कहीं ज्‍यादा
और हॉटल पर मालिक तो इस मिट्टी का नहीं
पानिया, राबड़ी और हाथ सिकी बाजरा-मके की रोट की जगह
फटाफट कोफ्ता, मुर्ग बिरयानी और तीतर-बटेर

कोने में दुबके एक अशक्‍त उदास बूढ़े के पास मैं जा बैठा
उसकी आंखों में कोई लंबी दास्‍तान थी
जिंदा होने की ललक मीलों तक गायब
पर एक खिड़की थी उम्‍मीद की जहां से मुझे अंदर ले लिया गया
वहां सूरज का ताप था लेकिन बुझा
चिडियां थीं पस्‍त और बेदम
पेड़ थे अपनी जगह और पहचान खोते
पूर्वजों के अक्‍स जंगलों में जगह-जगह लेकिन निर्जीव
तीर-कमान थे अंदर की अलगनी पर दम-तोड़ते
दूर-दूर तक कारिंदों की गश्‍त थी और
हांफते-भागते आदिमजन
महुआ, ताड़ यहां तक औरतें कब्‍जे से बाहर

वहां नहीं थीं अब की प्रचारित हत्‍याएं और लूट
यथार्थ के सीमाहीन विस्‍तार में खड़ा मैं
न कुछ पूछ सकता था, न कुछ भेदने को था बाकी
सब कुछ साफ साफ था काले हरूफों में लिखा
जिसे मैं पढ़ सकता था या भारत सरकार

(स्‍व. रामविलास शर्मा के साथ एक यात्रा की स्‍मृति में)