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जिसे रोज तुम पढ़ा करो / धीरज श्रीवास्तव

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सोच रहा क्या ऐसा लिख दूँ
जिसे रोज तुम पढ़ा करो ।
पढ़ पढ़कर तस्वीर हमारी
बस मन ही मन गढ़ा करो ।

जूही, चम्पा, लिली, चमेली
तोड़ बिछा दूँ पाँव तले !
या नयनों के दीप जला दूँ
राह तुम्हारी,शाम ढले !

और तोड़कर ला दूँ तारे
बस आँचल में मढ़ा करो।

सौ सौ नजरें तुम्हें नेह की
तुमको अर्पण कर जाऊँ !
रच दूँ कहो महावर या फिर
साँस -साँस में भर जाऊँ !

कभी - कभी तो दर्शन देने
बस कोठे पर चढ़ा करो ।

लाज ओढ़कर ढूँढ रही है
एक कल्पना, प्यार प्रिये !
छंद सरित अधरों पर रचकर
व्याकुल है मनुहार प्रिये !

जीवन तट पर छूने मुझको
बस लहरों सी बढ़ा करो !