भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जिसे हम रचते हैं / सत्यानन्द निरुपम
Kavita Kosh से
जिसे हम रचते हैं
वह न सुख होता है न दुःख
जो हमें रचता है
वह थोड़ा सुख होता है थोड़ा दुःख
इनके ही रचे
हमारे स्वप्नों में आते हैं रस-गंध
कल्पनाओं में आते हैं रंग-रूप
शब्दों में ढलते हैं तेवर...
जेठ की बारिश और भादो की धूप
जैसे होते हैं सुख या दुःख
अंतर्गामी
इसलिए हम कर नहीं सकते
ऋतु-चक्र के बदलने का इंतज़ार
अविरल है वह
जो रच रहे हैं हम...