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जिस्म तो मिट्टी में मिलता है यहीं / गणेश बिहारी 'तर्ज़'

जिस्म तो मिट्टी में मिलता है यहीं मरने के बाद
उस को क्या रोएँ जो मरता ही नहीं मरने के बाद.

फ़र्ज़ पर क़ुर्बान होने का इक अपना हुस्न है
और हो जाता है कुछ इंसाँ हसीं मरने के बाद.

इक यही ग़म खाए जाता है के उस का होगा क्या
कौन रक्खेगा मेरा हुस्न-ए-यक़ीं मरने के बाद.

ये महल ये माल ओ दौलत सब यहीं रह जाएँगे
हाथ आएगी फ़क़त दो गज़ ज़मीं मरने के बाद.

ज़िंदगी तक के हैं रिश्ते ज़िंदगी तक है बहार
तुम कहीं ऐ 'तर्ज़' होगे वो कहीं मरने के बाद.