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जिस का बदन गुलाब था वो यार भी नहीं / प्रकाश फ़िकरी

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जिस का बदन गुलाब था वो यार भी नहीं
अब के बरस बहार के आसार भी नहीं

पेड़ों पे अब भी छाई है ठंडी उदासियाँ
इम्कान जश्‍न-ए-रंग का इस बार भी नहीं

दरिया के इल्तिफ़ात से इतना ही बस हुआ
तिश्‍ना नहीं हैं होंट तो सरशार भी नहीं

राहों के पेच-ओ-ख़म भी उसे देखने का शौक़
चलने को तेज़ धूप में तैयार भी नहीं

बिछडे़ हुओं की याद निभाते हैं जान कर
वरना किसी को भूलना दुश्‍वार भी नहीं

जितना सितम-शिआर है ये दिल ये अपना दिल
उतने सितम-शिआर तो अग़्यार भी नहीं

अहल-ए-हुनर के बाब में उस का भी ज़िक्र हो
‘फिक्री’ को ऐसी बात पे इसरार भी नहीं