जिस जख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की / ग़ालिब
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर<ref>संभावना</ref> रफ़ू<ref>सिल कर ठीक करना</ref> की
लिख दीजियो, या रब उसे ! क़िस्मत में अ़दू<ref>दुशमन</ref> की
अच्छा है सर-अनगुश्त-ए-हिनाई<ref>मेंहदी लगी अंगुली के सिरा</ref> का तसव्वुर<ref>विचार, खयाल</ref>
दिल में नज़र आती तो है, इक बूंद लहू की
क्यों डरते हो उ़शशाक़<ref>आशिकों</ref> की बे-हौसलगी से
यां<ref>यहाँ</ref> तो कोई सुनता नहीं फ़रियाद किसू<ref>किसी</ref> की
दश्ने<ref>चाकू</ref> ने कभी मुंह न लगाया हो जिगर को
ख़ंज़र ने कभी बात न पूछी हो गुलू<ref>गरदन</ref> की
सद हैफ़<ref>बहुत अफसोस</ref> ! वह ना-काम, कि इक उ़मर से ग़ालिब
हसरत में रहे एक बुत-ए-अ़रबदा-जू<ref>झगड़ालू प्रेयसी</ref> की
--एक अनछपी पंक्ति--
गो ज़िंदगी-ए-ज़ाहिद-ए<ref>धार्मिक उपदेशक</ref>-बे-चारा अ़बस<ref>निरर्थक</ref> है
इतना है कि रहती तो है तदबीर वुज़ू<ref>स्नान</ref> की