जिस तरफ़ देखो उधर हैं देवता ही देवता / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
जिस तरफ़ देखो उधर हैं देवता ही देवता
आदमी का पर कहीं मिलता नहीं कोई पता
रास्ता अपना बदल कर आप क्यों जाने लगे
हो गई हम से मेहरबां कौन-सी ऐसी ख़ता
दम बहारों में वफ़ा का जो सदा भरते रहे
वो ख़िज़ा में दोस्त सारे हो गए हैं लापता
कल जहाँ, हर शख़्स की नज़रों में ख़ासुलख़ास थे
अब हमें उस शहर में कोई नहीं पहचानता
आँख ने तो देखकर तुमको किया होगा गुनाह
जुर्म क्या दिल ने किया है, क्यों रहे इसको सता
नोच कर खा जाएंगे हासिद तुम्हारी बोटियाँ
बात अपनी क़ामयाबी की न तुम देना बता
ऐ रहमदिल! तेरी रहमत पर भरोसा है मुझे
यूँ किए ही जा रहा हूँ मैं ख़ताओं पर ख़ता
देह के पिंजरे में पंछी साँस का जो बन्द है
कब अचानक जाए उड़ कोई नहीं इसका पता
ज़िन्दगी भर यार का दीदार मिल पाया नहीं
ख़ाक़ दर-दर की ‘मधुप’ फिरता रहा मैं छानता