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जिस दिन अंधेरों से कहीं मैं मिलके आता हूँ / राकेश जोशी
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जिस दिन अंधेरों से कहीं मैं मिलके आता हूँ
देर तक उस दिन मैं बच्चों को पढ़ाता हूँ
शहर बनती जा रही धरती को फिर से मैं यहाँ
ढेर-से पौधे लगा जंगल बनाता हूँ
मैं तुम्हारे ही लिए सपने नहीं बोता
रोटियां अपने लिए भी मैं उगाता हूँ
कारखानों का धुआं जब याद आता हैं
लौटकर घर पर मैं फिर चूल्हा जलाता हूँ
मैं कभी तुमसे किए वादे निभाता था
आजकल अपने लिए पैसे कमाता हूँ
वो जो कचरे की तरह फेंके गए हैं आज भी
मैं उन्हीं के गीत लिखता, गुनगुनाता हूँ
इक नई दुनिया को धरती पर बुलाने के लिए
गिट्टियां ढोता हूँ मैं सड़कें बिछाता हूँ