जिस दिन बेटी पैदा हुई / मनु मन्जिल / चन्द्र गुरुङ
जिस दिन मैं पैदा हुई
धूप ने आँगन में उतरने से इनकार कर दिया
केवल एक परछाईं सरसराती रही
दहलीज के बाहर, दहलीज के भीतर और चेहरों पर ।
माँ के आँखों से बुरुँस का फूल अचानक कहीं गायब हो गया
पिता कल ही की नीँद में ऊँघते रहे सुबह भी देर तक
एक नए यथार्थ की मौजूदगी नज़रअन्दाज़ करते रहे ।
प्रसवोत्तर–गन्ध आस-पड़ोस में बस्साती रही
माँ खुरदरे हाथों से बासी तेल ठोकती रही माथे पे
उनकी चञ्चल चूड़ियों में विरह की धुन बजती रही ।
एक पुराना परदा झुलता रहा खिड़की पे
गर्भ के बाहर भी सूरज ओझल होता रहा
मैं और मेरे मन के उजियाले के बीच
पुरानी, आलसी दीवारें खड़ी रहीं निरन्तर
हिमालय पर्वत की छाती से उठा ठण्डी हवा का एक झोंका
उड़ते-उड़ते मेरे पास पहुँचा और धड़ाम से... बन्द कर दिया दरवाज़ा ।
मेरी छोटे से अंकपाश में समाने को तैयार एक आकाश
हमारे बीच लम्बी दूरी बिछाकर दृश्य से गायब हो गया ।