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जिस दिन मैं घर से चला था / पंकज सिंह

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जिस दिन मैं घर से चला था

सुबह-सुबह

ओस से भीगा एक घोंसला ज़मीन पर गिरा था


प्लेटफ़ार्म की भीड़ में छिल गई थी मेरी मुस्कुराहट

मैंने कहने की कोशिश की थी-- 'विदा'

'फ़िलहाल...विदा'

मगर इसके पहले कि वे शब्द तुम तक जाते या

ख़ुद मेरे कानों तक भी

उन्हें लपक कर उड़ा ले गई धूल भरी हवा

कसाइयों के मुहल्ले की तरफ़

क्योंकि बचपन के ताज़ा ख़ून से भरे शब्दों की मांग

लगातार बढ़ रही थी उस शहर में


धुएँ से भरी एक पुरानी लालटेन और कई साल

फटी रजाइयों में लिपटी सर्दियाँ और कई साल

खपरैल-छप्परों की एक फीकी उदास दुनिया और कई साल


शाम के आसमान में टंगी एक फूटी स्लेट और कई साल

किश्तों में रेंगती मौत और कई साल


साल दर साल पैबंद लगे साल दर साल खाँसते साल दर साल

सूखे पत्तों भरे

उतर

आए

थे

विदा में उठे

ना मालूम सिहरन में हिलते उस हाथ के करीब


जो तुम्हारा था

विदा में उठे उस हाथ के लिए थे वे कुछ शब्द

उन्हें उन हाथों ने नही सुना

और वे कसाईख़ाने की ओर ले जाए गए


आज तक घूमता है मेरी स्मृति के कोटरों में

प्लेटफ़ार्म की भीड़ में धुंधला होता तुम्हारा थका

हिलता हाथ

जब नींद से जागते हैं साल दर साल जब

लाखों साल की दन्तकथाएँ वापिस लौटती हैं नींद के प्रति संसार में

जब जीवित होते हैं तमाम पत्थर किलों, पार्कों, मन्दिरों और

ड्राविंग रूमों में अतीत उगलते

भटकता है वह हाथ तुम्हारा जो विदा में उठा था


और इतिहास में जिसका कोई ज़िक्र कभी नहीं होना है