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जिस ने तुझ हुस्न पर निगाह किया / 'सिराज' औरंगाबादी

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जिस ने तुझ हुस्न पर निगाह किया
नूर-ए-ख़ुर्शीद फ़र्श-ए-राह किया

हक़ ने अपने करम सती मुज कूँ
मुल्क-ए-ख़ूबी का पादशाह किया

मश्‍क-ए-ग़फ़लत से तीरा-बातिन ने
सफ़्हा-ए-ज़िंदगी सियाह किया

हौज़-ए-कौसर का तिश्‍ना-लब कब है
इस ज़नख़दाँ की जिस ने चाह किया

कूचा-ए-ज़ुल्फ में गया जब दिल
बर्ग-ए-सुम्बुल कूँ ज़ाद-ए-राह किया

बर्क़-ए-ख़िरमन है जान-ए-दुश्‍मन का
दर्द सीं जिस ने एक आह किया

मत जला अब ‘सिराज’ कूँ ज़ालिम
शोला-ए-ग़म कूँ उज्र-ख़्वाह किया