भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जिस परी पैकर से मुझको प्यार है / अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी
Kavita Kosh से
जिस परी पैकर से मुझको प्यार है
वह मुसलसल दरपए आज़ार है
ख़ानए दील मेँ मकीँ है वह मेरे
फिर न जाने कैसी यह दीवार है
कर दिया है जिस ने दोनोँ को जुदा
जिस से रबते बाहमी दुशवार है
है ख़ेज़ाँ दीदह बहारे जाँफेज़ा
दूर जब से मूझसे मेरा यार है
उसके इस तर्ज़े तग़ाफ़ुल के सबब
ज़ेहन पर हर वक्त मेरे बार है
उसका तरज़े कार तो ऐसा न था
पहले था एक़रार अब इंकार है
क्या बताए अपनी बर्क़ी सरगुज़श्त
हाले दिल नाक़ाबिले इज़हार है