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जिस भी रूह का / मजीद 'अमज़द'
Kavita Kosh से
जिस भी रूह का घूँघट सरकाओ.....नीचे इक
मंफ़ेअत का रूख़ अपने इत्मिनानों में रौशन है
हम समझते थे घिरते उमड़ते बादलों के नीचे जब ठंडी हवा चलेगी
दिन बदलेंगे
लेकिन अब देखा है घने घने सायों के नीचे
ज़िंदगियों की सल्सबीलों में
ढकी ढकी जिन नालियों से पानी आ आ कर गिरता है
सब ज़ेर-ए-ज़मीन निज़ामों की नीली कड़ियाँ हैं
सब तम्लीकें हैं सब तज़लीलें हैं
कौन सहारा देगा उन को जिन के लिए सब कुछ इक कर्ब है
कौन सहारा देगा उन को जिन का सहारा आसमानों के ख़लाओं में बिखरा हुआ
धुंदला धुंदला इक अक्स है
मैं उन अक्सों का अक्कास हूँ