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जिस रात मैं कविता लिखता हूँ / संजय कुमार शांडिल्य

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हिलते-डुलते लोग दिखते हैं आन्दोलित
मैं इस डबरे में उन्हें थिर
करना चाहता हूँ
इस काली रात जब जिस्म ख़ुद
एक परछाई है

शब्दों के बाहर के पतझड़ में सारी ठोस चीज़ें
हलकी होकर उड़ती हैं
जिस रात मैं कविता लिखता हूँ

मेरी नींद पछुआ में चूल्हे की राख की तरह
फैल जाती है
जैसे फैल जाती है मसान में
अस्थियों को बीनकर सुरक्षित
रख लेने के बाद

तो क्या मैं कविताएँ शब्दों में पृथ्वी की लय
सुरक्षित रखने के लिए लिखता हूँ?

घर की दीवार उड़ती है और घर नग्न हो जाता है
मैं शब्दों में बारिश और ओले से बचने की
कोशिश करता हूँ
सारे ख़ून के रिश्ते
इस समय के निर्बाध
सूनेपन में
गंगा में फूले हुए शव
की तरह बहते हैं

पानी के फूल की तरह सपने
आँखों की कोर तक ठोस रहते हैं
उनको पकड़ना चाहता हूँ
उनके ढलक कर भाप होने से पहले

यह मेरी कमीज़ उड़ रही है खील और बताशों जैसे
और मेरा दोपहर का भोजन
और मेरी पढ़ी-लिखी बातें
उसी क्रूर और भारी आवाज़ में
जैसे हवा में लोबान का धुआँ

हम उड़ रहे हैं साथी वायुण्डलविहीन इस अन्तरिक्ष में
जैसे प्रेत उड़ते हैं भूख और ठण्ड को काटते
जवान होती पिता की बहनों की उम्र-सी झरती
अन्तहीन कथाओं में

जैसे ख़ूब तेज़ हवा में टूटी हुई कमानी
पकड़ती है छतरी का कैनवास
मैं बार-बार अपनी कथरी पकड़ता हूँ
जिसपर कटती है पारे-सी गर्म रात

दिन के छकड़े पर ढोया हुआ भारी जीवन
रात हलका होकर खुली आँखों में गड़ता है
शब्दों के बाहर गुड़ के छोए-सी
भारी नींद पसरी रहती है

मैं जिस रात कविता लिखता हूँ, उस रात बस
कविता लिखता हूँ ।