जिस वक़्त तबस्सु-म में वो रंगीं दहन आवे / वली दक्कनी
जिस वक़्त तबस्सुम में वो रंगीं दहन आवे
गुलज़ार में ग़ुंचे के दहन पर सुख़न आवे
ताहश्र उठे बू-ए-गुलाब उसके अरक़ सूँ
जिस बरमिनीं यकबार वो गुल पैरहन आवे
साया हो मेरा सब्ज़ बरंग-ए-पर-ए-तूती
गर ख़्वाब में वो नो ख़त-ए-शीरीं बचन आवे
खींचे अपस अँखियाँ मिनीं ज्यूँ कुहल-ए-जवाहर
उश्शाक़ के घर हाथ वो ख़ाक-ए-चमन आवे
यक गुल कूँ अपस हाल में उस वक़्त न पावे
जिस वक़्त चमन बीच वो रश्क-ए-चमन आवे
आलम में तेरे होश की तारीफ़ किया हूँ
ऐसा तो न कर काम कि मुझ पर सुख़न आवे
गर हिंद में तुझ ज़ुल्फ़ की, काफि़र कूँ ख़बर हो
सुनने कूँ सबक़ कुफ़्र का हर बिरहमन आवे
हरगिज़ सुख़न-ए-सख़्त को लावे न ज़बाँ पर
जिस दहन में यक बार वो नाज़ुक बदन आवे
ताहश्र करे सैर-ए-ख़याबाँ के चमन में
गर गौर पे आशिक़ के वो अमरत बचन आवे
बर जा है अगर जग में 'वली' फिर कि दुजे बार
रख शौक़ मिरे शे'र का 'शौक़ी हसन' आवे