जिस सर को ग़रूर आज है याँ ताजवरी का / मीर तक़ी 'मीर'
जिस सर को ग़रूर<ref>दंभ </ref> आज है याँ<ref>यहाँ</ref> ताजवरी<ref>मुकुट धारण करने का </ref> का
कल जिस पे यहीं शोर है फिर नौहागरी<ref> मृत्यु पर किया जाने वाला विलाप</ref> का
आफ़ाक़ <ref> जीवन </ref> की मंज़िल से गया कौन सलामात<ref>सुरक्षित </ref>
असबाब <ref> सामान </ref> लुटा राह में याँ हर सफ़री<ref> यात्री</ref> का
ज़िन्दाँ <ref> जेल </ref> में भी शोरिशन गयी अपने जुनूँ <ref>पागलपन </ref> की
अब संग <ref>पत्थर </ref> मदावा<ref>इलाज </ref> है इस आशुफ़्तासरी<ref>जंगलीपन या वहशीपन </ref> का
हर ज़ख़्म-ए-जिगर दावर-ए-महशर से हमारा
इंसाफ़ तलब है तेरी बेदादगरी का
इस रंग से झमके<ref>चमके </ref> है पलक पर के कहे तू
टुकड़ा है मेरा अश्क<ref>आँसू </ref> अक़ीक़े-जिगरी<ref>हृदय के हीरे </ref> का
ले साँस भी आहिस्ता से नाज़ुक़ है बहुत काम
आफ़ाक़<ref>ये दुनिया</ref>है इस कारगाहे-शीशागरी<ref>शीशे का कारख़ाने </ref>का
टुक<ref>ज़रा </ref>मीरे-जिगर सोख़्ता <ref>मीर जैसे दिल के मारे हुए </ref> की जल्द ख़बर ले
क्या यार भरोसा है चराग़े-सहरी<ref> सुबह का चिराग़</ref> का