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जीतने को रोज़ मोहरा ढूँढते हैं / रोहित रूसिया
Kavita Kosh से
जीतने को रोज
मोहरा ढूंढ़ते हैं
उड़ानों के लिए तो
खोलते हैं पर
लेकिन ओढ़ लेते हैं
ज़माने भर का डर
और फिर हम ख़ुद ही
पहरा ढूंढ़ते हैं
दुनिया को अपनी
बुलंदी दिखाने
कभी नाकामी भरे
सर को छुपाने
हम ज़माने भर का
चेहरा ढूंढ़ते हैं
रोज दिखते हैं
अलग ही रूप में
सच उजागर
हो ना जाये धूप में
आओ फिर से
भ्रम का
कोहरा ढूंढ़ते हैं
जीतने को रोज़
मोहरा ढूढ़ते हैं