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जीते क्या हैं, जी लेते हैं / अमित
Kavita Kosh से
जीते क्या हैं, जी लेते हैं।
घूँट ज़हर के पी लेते हैं।
कहीं दर्द से आह न निकले,
होंठो को हम सी लेते हैं।
मैं मुजरिम हूँ जिस गुनाह का,
उसका लुत्फ़ सभी लेते हैं।
चुप हूँ तो नासमझ कहेंगे,
बोलूँ तो चुटकी लेते हैं।
‘पाला‘ पड़े कहीं पर, ’साहब’,
बिस्तर की गरमी लेते हैं।
वो बोलें मैं सुनूँ ध्यान से,
मैं बोलूँ, झपकी लेते हैं।
मुझे देख चुप हुये अचानक
अच्छा हम छुट्टी लेते हैं।