जीते रहे, जलते रहे / संजय तिवारी
घट वही, पनघट वही, आहट वही, चाहत वही
साँसे वही, आहे वही, चाहें वही, आदत वही
उन्मुक्ति सम, आसक्ति कम, यादें वही,मन्नत वही
अल्हड़ नदी जब बह चली, धड़कन वही, जन्नत वही।
वह संदली से देह धुन या गंध पावन सी लगी
वह कौतुकी थिरकन बनी, वह मेघ सावन सी लगी
वह गेसुओं की लट तुम्हारी, झूमती नागिन दिखी
गज सी गमन की हंसिनी की राह आवन सी दिखी।
मह मह महकती खुश्बुओ की शाम की खुशबू रही
जो चाह की मंजिल रही, जो प्यार का साहिल सही
जो वेग पाकर बह चली, धारा तरल गंगा बनी
खुशबू वही तो जिंदगी, हर सांस में बसती रही।
हाँ जिंदगी ही है नदी,बहती रहे, बढती रहे
गति में अगम, गम में गती, चढ़ती रहे, चलती रहे
साहिल अनन्तर,सम चलें, चलते रहे, पर बिन मिले
जीवन यही, आकार बन, जीते रहे, जलते रहे।