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जीत नहीं, हार / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
तुम जीत इसे कह लो, मालिक, लेकिन यह हार तुम्हारी है।
दिन बुरे गये, दिन भले गये, दुनिया भर से हम छले गये,
क्या हुआ, हमारे फूल अगर पैरों के नीचे दले गये?
कुछ दाँव भले हम हार गये, बाजी हमने कब हारी है?
यह तो वह जाल तुम्हारा है, तुमने ही जिसे पसारा है,
कट गयी तुम्हारी नाक और तुम खुश हो, क्या दे मारा है;
जो यों सर पर चढ़कर बोले, उस जादू की बलिहारी है!
जाने क्या कितने वार सहे, हमने ओले-अंगार सहे,
आफत के टूट पड़े पहाड़, हम जीते ही हर बार रहे;
फिर यह तुमने जो देखा है, वह तो भूमिका हमारी है।
इंसाफ हमारा भी होगा, ईमान कहीं न कहीं होगा,
इतिहास कहेगा, सचमुच सूर सहज था कौन महज़ धोखा;
किस करवट बैठे ऊँट अभी जाने किसकी क्या बारी है! !