जीत हो या हो भले ही हार / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
जीत हो या हो भले ही हार,
है स्वीकार
जीवन की मुझे ललकार।
जल रहा प्रत्येक क्षण हो रवि प्रलय का
चल रहा हो पवन सन्-सन्-सन् प्रलय का;
चाँद से भी अग्नि की लपटें उठी हों
उच्च हिमगिरि की शिलायें जल उठी हों।
फूल धरती के बने अंगार,
है स्वीकार
जलने का मुझे व्यापार॥1॥
छूटते हों वृष्टि-वाण अनन्त नभ से
टूटते हों क्यों न सिर पर वज्र नभ से;
क्यों न धरती-आसमान मिले हुए हों
क्यांे न जग के प्राण-प्राण मिले हुए हों।
मैं अकेला, अंधकार अपार,
है स्वीकार
तम का वृहत् पारावार॥2॥
क्षुब्ध सागर की हिलोरें बढ़ रही हों
क्रुद्ध होकर हिम-शिखर पर चढ़ रही हों,
स्वर्ग-गंगा में मिलें जाकर भले ही
स्वर्ग-सागर में मिलें जाकर भले ही।
हो प्रलय-जल-मग्न यह संसार,
है स्वीकार
लहरों की मुझे फुफकार॥3॥
युद्ध का परिणाम मैं क्या जानता हूँ
मैं सिपाही युद्ध करना जानता हूँ;
रख दिया जो पैर वह आगे बढ़ेगा,
उच्चतम प्रालेय शिखरों पर चढ़ेगा।
मृत्यु की होगी वहाँ ललकार,
है स्वीकार
मुझको मृत्यु से भी प्यार॥4॥
जीत हो या हो भले ही हार-1
जीत हो या हो भले ही हार
कर न तू इसकी तनिक परवाह।
ढूँढ़ मत आश्रय, अकेला चल अभय
साथ में संसार चाहे हो नहीं;
नाव जीवन की चला तूफान में
हाथ में पतवार चाहे हो नहीं।
डूब जाये या कि हो तू पार
कर न तू इसकी तनिक परवाह॥1॥
झुक रही संसार पर तम की निशा
दीप बन कर है तुझे जलना यहाँ;
माँगने मानव-हृदय के स्नेह-कण
बन भिखारी है तुझे चलना यहाँ।
बन्द हों या हों खुले गृह-द्वार,
कर न तू इसकी तनिक परवाह॥2॥
लक्ष्य से तुझको करे गुमराह जो
भूल कर भी रख न पग उस राह पर;
है किसी ने भार जो सौंपा तुझे
प्राण पर भी खेल कर निर्वाह कर।
जग करे तुझसे घृणा या प्यर,
कर न तू इसकी तनिक परवाह॥3॥