जीना भी एक कला है / जानकीवल्लभ शास्त्री
जीना भी एक कला है .
इसे बिना जाने हीं, मानव बनने कौन चला है ?
फिसले नहीं,चलें, चटटानों पर इतनी मनमानी .
आँख मूँद तोड़े गुलाब,कुछ चुभे न क्या नादानी ?
अजी,शिखर पर जो चढ़ना है तो कुछ संकट झेलो,
चुभने दो दो-चार खार, जी भर गुलाब फिर ले लो.
तनिक रुको, क्यों हो हताश,दुनिया क्या भला बला है ?
जीना भी एक कला है.
कितनी साधें हों पूरी, तुम रोज बढाते जाते ,
कौन तुम्हारी बात बने तुम बातें बहुत बनाते,
माना प्रथम तुम्हीं आये थे,पर इसके क्या मानी?
उतने तो घट सिर्फ तुम्हारे, जितने नद में पानी .
और कई प्यासे, इनका भी सूखा हुआ गला है .
जीना भी एक कला है.
बहुत जोर से बोले हों,स्वर इसीलिए धीमा है
घबराओ मन,उन्नति की भी बंधी हुई सीमा है
शिशिर समझ हिम बहुत न पीना,इसकी उष्ण प्रकृति है
सुख-दुःख,आग बर्फ दोनों से बनी हुई संसृति है
तपन ताप से नहीं,तुहिन से कोमल कमल जला है
जीना भी एक कला है.