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जीना है तो बदलते रहो मौसमों के साथ/ विनोद तिवारी


जीना है तो बदलते रहो मौसमों के साथ
हाँ तज़ और तेज़ चलो मौसमों के साथ

राहों में रौशनी है कहीं तीरगी भी है
तनहाइयों के गीत सुनो मौसमों के साथ

ख़ुशियाँ हैं ज़िन्दगी में तो ग़म की चुभन भी है
काँटे कभी तो फूल बनो मौसमों के साथ

घर में सिमट के बैठना बेकार ही तो है
चाहो तो देस-देस फिरो मौसमों के साथ

बरखा, बहार, धूप ,घटा ,चाँदनी या शाम
जिसकी भी चाहे बात करो मौसमों के साथ

बीती कहानियों को भी दोहरा लिया करो
हर दिन नई किताब लिखो मौसमों के साथ