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जीने का खेल / रघुवीर सहाय
Kavita Kosh से
मुझे क्यों लग रहा है कि बच्चे घर में लौट आए
आँख मूँदे उनकी बोली उस वाले कमरे में
क्यों सुनने लगा हूँ मैं
मेरी कल्पना उनके सब संवाद तर्क सहित सुनती है
एक दिन
मेरे अपने जीवन में ही ख़त्म होने वाला
है यह खेल
मेरे घर की दीवार पर मेरी तस्वीर होगी
बच्चे आएँगे पर मेरी कल्पना में नहीं--अपने
समय से आएँगे
और उनकी बोली में उनका तर्क नहीं होगा
जिसको आज सुनता हूँ