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जीने के भी कई बहाने / सुधांशु उपाध्याय

पावस का घन
टूट रहा है

ये बादल के लटके-झटके
सागर की आँखों में खटके
ये पानी है ये बिजली है
शीशे के दरवाज़े चिटके
सहम रहा है पक्का घर यह
कुछ तो है
जो छूट रहा है

रात-रात भर नीम जगी है
भरी दोपहरी आँख लगी है
जीभों पर हैं स्वाद ठिठकते
ये स्वादों की अजब ठगी है
टहनी भारी होकर हिलती
शायद कल्ला
फूट रहा है

हिला बाँध छू गई नदी है
हल्दी अक्षत बदी सुदी है
बाज़ारों में लुट जाते हैं
कुछ उधार कुछ नकदी है
सोई गुमटी
लूट रहा है

बिखरे हैं सरसों के दाने
साँसें बिखरी हैं सिरहाने
जीने वाले जी लेते हैं
जीने के भी कई बहाने
दिन तो पहले जैसा बैठा
तिल छाती पर
कूट रहा है।