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जीने के लिए (कविता) / महेन्द्र भटनागर

जीने के लिए

दहशत दिशाओं में
हवाएँ गर्म
गंधक से, गरल से;

किन्तु मंज़िल तक
थपेड़े झेलकर
अविराम चलना है !

शिखाएँ अग्नि की
सैलाब-सी
रह-रह उमड़ती हैं ;

किन्तु मंज़िल तक
चटख कर टूटते शोलों-भरे
वीरान रास्तों से
गुज़रना है,
तपन सहना
झुलसना और जलना है !

सुरंगें हैं बिछी
बारूद की
चारों तरफ़
नदियों पहाड़ों जंगलों में ;

किन्तु मंज़िल तक
अकेले
खाइयों को ; खंदकों को
लौह के पैरों तले
हर बार दलना है !