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जीवण छिब / राजू सारसर ‘राज’

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म्हूं चालूं,
उण महाजातरा सारू,
करूं सरू आज ई ।
आ घड़ी, अै नखतर
जोतक रै हिसाब सूं
चावै नीं हुवै पण
म्हारै आत्मबळ हिसाब सूं
है घणा सुब
इण सूं भलो बगत,
स्यात नीं आवै।
लेय ’र नवो संकळप
मन में
पग मैलूं
धर कूंचा, धर मजलां
किणीं रै नैणां री
जळ किणीं बणैं
नदी री धार
बै ’वै अंवेर्योडा सुपना
उण सूं पैला ई।
जोवै लांबौ मारग बाट
पंथी अर पंथ रो
सगपण हुयां बिना
कद बणैं, पगां रा ऐनाण
माटी माथै।
निरलोभी, निरपेख
भाव उपड्यां बिना
हियै में
बण नीं सकै
नवों मारग नवों दरसण
जठै हुवै सत री
सींव खतम
बठै सूं पांगरै कूड री कूंपळां।
जूण नैं,
निस्सार केवणियां
नीं जाण सकै,
उणरों महतब
‘‘जीवण बिना सांच रा सोध
कीकर कर सकां।’’
मन में
उमड़ती घटावां नैं
आकार देवणौं तो स्यात्
नीं होवै सौरौ
जतन पण करनैं देखां
लाभ हाण रो सुळझीवाड़ौ
हुवै दौरौ
निराकार सबद पण
कागद माथै उभर सकै
खोरसै सूं।
निज रै चौळियै नैं तोड’र
पडै दूजै रै चौळियै मैं
आ कुण सी आजादी ?
कूवै सूं निसर ’र
खाडै में पड़नौ
ओपरी गुलामी अंगेजणौं
मन रा पण अनुबंधा नैं
तोड़नौ नीं पड़ै, कदास
इण महाजातरा नैं पूरण सारू।