भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जीवण रो संघरस / मनोज चारण 'कुमार'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मिनख जूण,
घणी दोरी मिलै,
लाखूं लाख री दौङ हुवै,
एक दूजै सूं आगै निकल़'ण
री होङ हुवै,
उण दौङ मैं जीतै,
बो इज जीवा-जलम पावै।
नो महिना माँ रै पेट मैं,
घोर अंधारो,
घणां दुख पातो जीव,
मौत री घाट्यां उतरै,
माँ-पूत नुंवो जलम पावै।
आँख खोलतां इज दीसै,
नूंवा नूंवा मिनख,
भांत भांत रा मुंडा,
मुंडां माथै चिप्योङी,
जगत री बेईमान्यां,
जीव अविनाशी नै याद करै।
दोरो घणूं मोटो होवणूं,
गंदगी मैं रपटतो,
गोडा रगङतो,
पङतो-रूङतो
खङ्यो हुवै पगां रै पाण,
जगत री मिलै नुंई पिछाण।
जिंया जिंया बडो होवै,
नित रा नूंवा फंद,
घलता जावै,
गल़ै रै मांय।
पढ़ाई अर नौकरी,
ब्याव अर टाबर,
माईतां की बिमारी,
टाबरां को ब्याव,
टाबरां का टाबर
अर
आपरो बुढ़ापो।
जलमै जद समझै कोनी,
पछै समझण देवै कोनी,
जद तांई बात समझ मैं आवै,
लाव निसर ज्यावै,
हाथां सूं।
जीवा जूण मैं पछै,
बाकी कीं नीं बचै,
हाथां मैं रै ज्यावै,
बीतेङै बरसां को हिसाब,
अर निजर आवै घाटो,
कीं नीं हाथ लागै,
सिवाय पिसतावै रै।
मिनख जूण दोरी मिलै है,
अैल़ी नीं गमाणी चाईजै,
क्यूं जलम्या हां,
के हाँ आपां,
अर कठै जास्यां पाछा,
जे सोचै मानखो,
तो सुधर ज्यावै जीवा जूण,
अर सगल़ो ई संसार भी।
पण कुण सोचै इत्ती,
आपां ई मरांला,
नीं सोचै मिनख,
अर करै मन मैं जचै जकी,
भूल ज्यावै,
देणी पङसी ज्यान,
उधार लेके आया ज'की।
जीणूं दोरो है,
जीणै मैं संघरस करणूं पङै,
जीणै री कोशिस मैं,
मरणूं पङै है मिनख नै,
पण
नाम गिणीजै पोरवै बां रा,
जका जीवै मैणत पाण,
करै ज'का जीवण नै सफल,
बिरला इज बणै,
आपरै संघरस रै कारणै,
इण दुनियां मांय कबीर।।