जीवनसाथी / निमिषा सिंघल
जीवन!
किस तरह
अधूरा रह जाता है
जब भी जीवन से कोई एक
चला जाता है।
रथ के दो पहिए हैं
जीवन साथी दोनों
कैसे एक पहिए पर
जीवन रह जाता है!
पूरक एक दूजे के।
दोनों बंँधें डोर से
कैसे कोई डोर तोड़
यूँ उड़ जाता है?
हो आज़ाद माया बंँधों से
दूर गगन में
कैसे कोई चैन से
एक पल रह पाता है!
कहने की बातें हैं
जाकर एक बार फिर
कोई वापिस
यहाँ नहीं फिर आ पाता है।
घर के कोने -कोने में
वह बसा यहाँँ पर
चेहरों और आदतों में
पल-पल दिख जाता है।
बँधन तोड़ कोई भी जग से
जाने कैसे?
प्रियजनो को छोड़
कहीं भी जा पाता है।
हर पल अमूल्य है जीवन का
सोच समझ क्यों?
कैसे कोई कदम
नहीं बढ़ा पाता है!
अपने जिगर के टुकड़ों को
कैसे यूँ कोई
जग में बेसहारे छोड़
कहीं फिर खो जाता हैं।
माना
ईश्वर हैं पालक
सभी दीन-दुखियों के
फिर भी इतना निष्ठुर।
कैसे हो पाता है।
दूर चले जाने पर
प्रिय के
दूजे को फिर,
साथी का तब अर्थ
समझ में आ पाता है।