जीवन-मूल्य / पल्लवी मिश्रा

अपनी अन्तरात्मा की पुकार-
को कर अनसुनी
हर बार-
हम हो जाते हैं लिप्त
संसार के क्रिया-कलाप में-
चुटकी भर पुण्य में
और झोली भर पाप में-
साधन
सुविधा,
और सम्पन्नता की तलाश में-
हम भेद नहीं कर पाते हैं
गुलाब और पलाश में-
सभी नैतिक मूल्यों को
ताक पर रख कर
निर्द्वन्द्व विचरने लगते हैं
हम दिशाहीन आकाश में-
लक्ष्य दिन-ब-दिन
धुँधलके में
छिपता जा रहा है
खुद हमें ही नहीं मालूम
हमारी आकांक्षा क्या है?
अधिक-से-अधिक
पाने की चाह-
कर देगी आखिर हमें
एक दिन गुमराह-
यह असन्तोष
और प्रलोभन
दीमक की तरह
काट खाएगा
हमारा बहुमूल्य जीवन-
सम्भवतः इस आपाधापी में
बहुत कुछ हासिल भी हो जाए-
परन्तु कौन जाने?
तब तक
उम्र का अधिकांश हिस्सा
ही गुजर जाए
तथाकथित सुख के साधन
अन्ततः उपलब्ध भी हो जाएँगे
परन्तु
उपभोग करने के लए
हम नश्वर शरीर
कहाँ से लाएँगे?
जीवन ही जब नहीं बचा पाए
जीवन-मूल्य
क्या बचाएँगे?

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