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जीवन-मृतक का अंग / कबीर

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`कबीर मन मृतक भया, दुर्बल भया सरीर ।
तब पैंडे लागा हरि फिरै, कहत कबीर ,कबीर ॥1॥

भावार्थ - कबीर कहते हैं -मेरा मन जब मर गया और शरीर सूखकर कांटा हो गया, तब, हरि मेरे पीछे लगे फिरने मेरा नाम पुकार-पुकारकर-`अय कबीर ! अय कबीर !'- उलटे वह मेरा जप करने लगे ।

जीवन थैं मरिबो भलौ, जो मरि जानैं कोइ ।
मरनैं पहली जे मरै, तो कलि अजरावर होइ ॥2॥

भावार्थ - इस जीने से तो मरना कहीं अच्छा ; मगर मरने-मरने में अन्तर है । अगर कोई मरना जानता हो, जीते-जीते ही मर जाय । मरने से पहले ही जो मर गया, वह दूसरे ही क्षण अजर और अमर हो गया ।[जिसने अपनी वासनाओं को मार दिया, वह शरीर रहते हुए भी मृतक अर्थात मुक्त है।]

आपा मेट्या हरि मिलै, हरि मेट्या सब जाइ ।
अकथ कहाणी प्रेम की, कह्यां न कोउ पत्याइ ॥3॥

भावार्थ - अहंकार को मिटा देने से ही हरि से भेंट होती है, और हरि को मिटा दिया, भुला दिया, तो हानि-ही-हानि है ।प्रेम की कहानी अकथनीय है । यदि इसे कहा जाय तो कौन विश्वास करेगा ?

`कबीर' चेरा संत का, दासनि का परदास ।
कबीर ऐसैं होइ रह्या, ज्यूं पाऊँ तलि घास ॥4॥


भावार्थ - कबीर सन्तों का दास है, उनके दासों का भी दास है ।वह ऐसे रह रहा है, जैसे पैरों के नीचे घास रहती है ।

रोड़ा ह्वै रहो बाट का, तजि पाषंड अभिमान ।
ऐसा जे जन ह्वै रहै, ताहि मिलै भगवान ॥5॥

भावार्थ - पाखण्ड और अभिमान को छोड़कर तू रास्ते पर का कंकड़ बन जा । ऐसी रहनी से जो बन्दा रहता है, उसे ही मेरा मालिक मिलता है ।