भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जीवन-लय / शंभुनाथ सिंह
Kavita Kosh से
शब्द है,
स्वर है,
सजग अनुभूति भी
पर लय नहीं है!
कट गए पर हैं
अगम इस शून्य में,
उल्का सदृश
गिरते हुए मुझको
कहीं आश्रय नहीं है!
थम गए क्षण हैं
दुसह क्षण
अन्तहीन, अछोर निरवधि काल के;
फिर भी मुझे
कुछ भय नहीं है!
एक ही परिताप प्राणों में
सजग अनुभूति
पर क्यों लय नहीं है?