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जीवन का जल जल गया, देह हुई कंकाल / रंजना वर्मा

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यौवन का जल जल गया, देह हुई कंकाल ।
फिर भी मन से मोह का, मिटा न माया जाल।।

आओ हम फिर से रचें, एक नया संसार ।
जहाँ प्रेम धारा बहे, हो न द्वेष जंजाल।।

अनुचित उचित भुला रहे, केवल सत्ता हेतु
मर्यादायें भूल सब, करने लगे बवाल।।

सामाजिकता स्वप्न है, ऐसा हुआ समाज ।
धनी हुआ धनवान अति, निर्धन अति बेहाल।।

कृषि प्रधान है देश पर, नहीं कृषक का मान ।
खुद भूखा रहता मगर, रहा जगत को पाल।।

मिट्टी लगती है मलिन, और परिश्रम व्यर्थ
उनके कारण ही हुआ, जीना बहुत मुहाल।।

क्या जाने किस ओर है, हमलावर आतंक
लगी हुई चारो तरफ़, हिंसा की चौपाल।।