जीवन की कविता / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
अपने जीवन की कविता का नव अभिनव श्रंगार
एक छनद पायल पनघट तो एक छनद तलवार बना।
जीवन का हर चारण सहज हो पावन हो मन भावन हो
पानी पानी बना कभी तो कभी कभी अंगार बना।
शोषण सघन विलास और आलस्य शत्रु हैं जाग अरे !
कर्तव्यों की जोड़ श्रृंखला जीवन में अधिकार बना।
अभी समय है सोच अरे मन ! यह जग भूल भुलैया है
राग सजा ले उर अन्तर का जीन को सुखसार बना।
क्या बसन्त फागुन क्या सावन भादौ सबके सब नीरस
बहा बहा कर प्रेमवारि निज मरूथल को रसधार बना।
मानवता के जहाँ सप्तवर्णी सुमनों की गंध बहे,
जहाँ शान्ति हो सौमनस्य हो ऐसा नव संसार बना।
सीमाओं को तोड़ धरित्री एकोऽहं हरपल बोले,
उन्नत मानव धर्म हो सके जगती को परिवार बना ।
तोड़ खिलौने रहे खिलौने को ही आखिर क्यों निशिदिन
प्राणों की धरती को जग की करूणा का आधार बना।
काट रहा उसको ही क्योकर जिस डाली पर बैठा है ?
प्रकृति प्रिया के रूप रंग सब और न धूम धुँआर बना !