जीवन कुटीर में / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
जीवन कुटीर में यादों के मेले लगते, 
सजती झाँकियाँ विगत की मन के आश्रम में। 
मैं देख रही सब हृदय कुंज में छिपी हुई
जीवन लीला मुस्कान अश्रु के संगम में। 
 अभिषिक्त हो गया है मन जग की पीड़ा से, 
 युग-युग की भूली व्यथा-कथा निज जीवन की। 
 अनिमेष दृगों से ह्रास-त्रास-संत्रास देख, 
 क्या कहूँ हुई क्या दिशा-दशा मेरे मन की? 
मैंने जग की हर धारा को देखा-परखा
सबके जीवन से भली-भाँति मैं परिचित हूँ। 
सुख-दुख बाँटे हैं सबके रहकर साथ-साथ
मैं लोक-स्नेह से फिर भी अब तक वंचित हूँ। 
 मैं सहज कोमलांगी मुग्धा-सी भाव भरी, 
 जीवन धाराओं से संघर्षित रही सदा। 
 कैसी विडम्बना है चपला होकर भी मैं
 चपला-सी कड़वी नहीं अमर्षित रही सदा। 
मैं रूढ़ि अन्धविश्वास अनर्गल बातों में
अनमोल समय अपना न कभी व्यय करती हूँ। 
गढ़ती हूँ नित्य नया-पथ अपने जीवन का
मैं प्रगतिवाद का ही अभिनव स्वर भरती हूँ। 
 
 पर नहीं भूलती निज अतीत के गौरव को, 
 जो नित्य प्रेरणा नूतन देता रहता है। 
 करता है आत्मशक्ति का साधन सम्वर्धन 
 जीनव-धारा में जीवन मेरा बहता है। 
मैं आधुनिका-सी नहीं प्रिया मधुमासों की
हँसकर पतझारों का भी साथ निभाया है। 
मैं नहीं मात्र मलयानिल से इठलायी हूँ
स्नेहांचल में काँटों को भी दुलराया है। 
 चाँदनी विहँसती रही अगर जीवन-पथ पर
 तो घोर मावसों ने भी डेरे डाले हैं, 
 कोमल पाटल के कुन्ज मिले विश्राम हेतु
 तो दुःखद कभी बबूल करीलों वाले हैं। 
भीनी-भीनी फुहार पावस की मन्द-मन्द
मन-प्राणों को आनन्द कभी दे जाती है, 
तो प्रखर ग्रीष्म कर दग्ध हमारे जीवन को
जीभर झुलसाती निज प्रताप दिखलाती है। 
 मैं किन्तु न करती रोष, निर्बला-सी सहकर-
 परिवर्तन का आभार व्यक्त कर देती हूँ। 
 जीवनी शक्ति जगती को देता परिवर्तन
 मैं भी बढ़कर सानन्द ग्रहण कर लेती हूँ। 
जब आती मुझको याद प्रलय की विभावरी
खो जाती हूँ मैं भूल जगत को जाती हूँ, 
सुख-दुख दोनों से मुक्त न जाने कौन धार
ले जाती मन को खींच न कुछ कर पाती हूँ। 
 
 चेतना शून्य हो जाती हूँ ज्यों लुटी हुई, 
 जीवन के हाथों से जीवन की थाती है, 
रह जाते हैं त्यों प्राण देह में फँसे हुए 
माया ज्यों जीवन को छलकर उलझाती है। 
होकर संवेदन शून्य रचा मुझको विधि ने
सोचा न कभी भी क्या होगा, निज मन में, 
सुख की धाराएँ मिलीं और बिछुड़ी क्षण में
पर दुख का घेरा कभी न टूटा जीवन में। 
 मैं हो जाती हूँ मालामाल कभी क्षण में
 तो कभी एक क्षण में ही तो लुट जाती हूँ
 उठती-गिरती ही रही निरन्तर जीवन में
 जीवन की ज्योति जलाती और बुझाती हूँ। 
दिन-रात प्रभाती सन्ध्या हो या दोपहरी, 
मेरा आवास प्रवास बना ही रहता है, 
जीवन मेरा मर्यादाओं से बँधा हुआ
चुपचाप प्रकृति के शीत-ताप सब सहता है। 
 मैं प्राणवन्त प्रतिभा, जिजीविषा की प्रतिमा
 जीवन में नित्य प्रेरणा नूतन भरती हूँ। 
 करती संघर्ष निरन्तर जीवन धारा से
 प्राणों का तिलभर मोह नहीं मैं करती हूँ। 
बच सका कौन है जन्म मरण के बन्धन से
माटी का तन मिलता है और बिछुड़ता है, 
तन मन दोनों ही दुर्लभ हैं क्षणभंगुर हैं
इनके ही कारण इनको रोना पड़ता है। 
 
 है जीवन शाश्वत अंश, ध्येय परमेश्वर का, 
 विधि के इंगित पर विविध रूप करता धारण। 
 जगती के रंग-रसों का करता आस्वादन, 
 भोगता भोग उजले-काले मन के कारण। 
जीवन कुटीर में कभी बहारों का संगम
तो कभी अंधड़ों तूफानों का नर्तन है, 
जीवन है, जीवन और मृत्यु का मध्यान्तर
पर मृत्यु ज़िन्दगी का आमूल विसर्जन है। 
 गरमी के साथ-साथ मैं भी तप करती हूँ
 तप से जीवन के मेघ मुदित हो जाते हैं। 
 मेरे जीवन के लिए सुखद वरदान रूप
 शीतल फुहार निर्मल-बहार ले आते हैं। 
सानन्द मगन हो मन मयूर नर्तन करता
लहरों पर मैं चंचला थिरकने लगती हूँ, 
सजला हो उठी वसुन्धरा कण-कण समग्र
मैं निर्भय हो सर्वत्र विचरने लगती हूँ। 
 पर कभी-कभी चंचलता पर होकर विक्षुब्ध
 धाराएँ मुझको फेंक गोद से देती हैं, 
 निष्करुण क्रोध के कारण जब हो जाती हैं, 
 तब प्रलयसर्जिनी प्राण सहज हर लेती है। 
करती न किन्तु मैं क्रोध रंच भी लहरों पर
अपने नटखट स्वभाव पर ही रिसियाती हूँ, 
पछताती हूँ गम्भीर धार की सहचरिणी
होकर भी क्यों गम्भीर नहीं हो पाती हूँ? 
 
 चंचलता करती नाश ज़िन्दगी का क्षण में
 जीवन-कुटीर में हँसकर आग लगाती है, 
 पगली जीवन की धारा को कर अवरोधित
 अपना भी तो अस्तित्व समूल मिटाती हूँ। 
जीवन-कुटीर में सजी चन्द्रिका धवल कभी
तो कभी धूम्रघन सघन घिरे अवसर पाकर, 
जीवन कुटीर में दीवारें उगती आयीं
हैं सींच रहे जिनको अब तक दृग के निर्झर। 
 जीवन-कुटीर में जलते-बुझते रहे दिये
 मैं रही देखती सब कुछ सहती मौन खड़ी, 
 आनन्द महोत्सव ही न सदा देखे मैंने
 अरमानों की देखी लावारिश लाश पड़ी। 
जीवन-कुटीर में देखे कितने ज्योतिपर्व
कितने रंगोत्सव हुए गुलाबी आँगन में, 
जीवन की कलियाँ मुस्कायी फिर मुरझायीं
पलकें भींगीं अँखुआयी सुधियाँ सावन में। 
 जीवन-कुटीर में बजी बाँसरी मोहन की
 मृदुराग जगे रस रास हुआ मन-वृदावन, 
 भावना-राधिका एकनिष्ठ हो अमर हुई
 जीवनोद्देश्य ज्यों मूर्त्त हो गया हो पावन। 
मैं देह-धर्म से बँधी हुई सद्धर्म सदा
सम्पूर्ण समर्पण में विश्वास जगती हूँ
जगती के लिए सदा तत्पाता से अपना
सर्वस्य लुटाकर ही तो सब कुछ पाती हूँ। 
 
 देना ही सीखा हो जिसने बस जीवन में 
 लेने की कोई चाह न उपजी हो मन में, 
 निष्काम धर्म का पालन करते हुए वही
 पाता है जीवन लक्ष्य सहज ही जीवन में। 
जिनमें देने की पावन इच्छा जगी नहीं
बस ला-ला करते हुए देह को ढ़ोते हैं, 
भूखे ही जन्मे हैं वसुधा पर भाग्य हीन
वे कुटिल कर्म से बँधे रात-दिन रोते हैं। 
 वे पाते कुछ भी नहीं जगत व्यापारी से
 कामना कुम्भ सब रीते ही रह जाते हैं, 
 जब जगत उपेक्षित प्राणों में करुणा जगती
 अपने होकर भी हाय! अश्रु बह जाते हैं। 
सुख कहाँ मिल सका कभी गृहण में, संचय में
बस जाल विकारों के ही बनते जाते हैं। 
पर त्याग और संयम अनन्त सुख के दाता, 
जीवन का कण-कण हीरक-सा चमकाते हैं। 
 वन्दना कराते हैं जग की भव-भोग-रोग
 दीमक-सा जीवन को तिल-तिल खा जाते हैं
 फिर त्याग और संयम के चरणों में आकर
 गिरते हैं दुर्बल सदृश और पछताते हैं। 
है किन्तु जगत की माया में भी शक्ति अमित
जो क्षण में संयम-धर्म ध्वस्त कर देती है, 
ढक लेती है विवेक उजियारे को पल में
मणि आत्म ज्ञान की चुपके-से हर लेती है। 
 
 सबको प्रिय है यह समन्वया माटी पावन
 देकर ममत्व सबको समान दुलराती है। 
 माटी की काया माटी के ही रूपों पर
 होकर आसक्त हाय! माटी हो जाती है। 
जीवन प्रवाह में द्वीप मिले पर क्षण भर भी
रुक सकी न जीवन की विश्रान्ति मिटाने को, 
जीवन मरुथल के भ्रामक विरही अंको में
जीवन भर रही भटकती जीवन पाने को। 
 छप्पन व्यंजन पाता हो कोई नित्य भले, 
 पर सपनों में हो सकी तृप्ति है कब किसकी? 
 क्षण भर की होती शान्ति और फिर तृष्णा की
 ज्वाला जग जाती है बढ़ जाती है मन की। 
जगती में जिसने रचीं तृषा की ज्वालाएँ
उसने ही रची तृप्ति की धारा मंगलमय। 
जिसमें संचित है उद्भव पालन प्रलय पूर्ण
उसमें ही है संचित शिवत्व की निधि अक्षय। 
 वह जल में थल और पवन में प्रवहमान
 रवि में, निशेश में नभ में तारामण्डल में, 
 जड़ में चेतन में एक रूप बहुरूप बना
 उपवन के रंगों में गंधों की हलचल में। 
सर्वोच्चशक्ति का अतुलनीय वह बिन्दु एक
अमरत्व-मृत्यु-जीवन का एकल सूत्रधार
रच रहा खेल धरती पर पल-पल नये-नये। 
आधार सभी का है वह होकर निराधार। 
 
 
हे नाथ! प्रपंच जगत के मुझसे सब लो
 तुम ही तुम शेष रहो मेरे उर-अन्तर में, 
 तुम ही तुम साँसों में रहकर झनकार करो, 
 तुम ही तुम गूँजो केवल मेरे हर स्वर में। 
सुख-दुख के देखे पर्व जगत में जो मैंने
उन सब के बिम्ब उतारे हैं जीवन-पट पर, 
पनघट के गाये गीत कभी हैं मरघट पर
मरघट के गाये गीत कभी हैं पनघट पर। 
 घिर रहा निरन्तर अन्धकार जाने कैसा
 लो लगे गूँजने जीवन की संध्या के स्वर, 
 थक गये अंग जीवन की धारा के सारे 
 मैं खड़ी लोक-जीवन की पीड़ा के तट पर। 
लो महक उठा मेरे भी प्राणों का चन्दन
मैं धीरे-धीरे होस भुलाती जाती-सी, 
ये कौन हरण कर रहा चपलता जीवन की
ले शान्त हो रही मैं निशान्त की बाती-सी।
	
	