जीवन के अशीतितम वर्ष में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
जीवन के अशीतितम वर्ष में
किया आज प्रवेश जब
विस्मय यह जाग उठा मन में-
क्षय कोटि नक्षत्रों के
अग्नि निर्झर की निःशब्द ज्योति धारा
दौड़ रही निरूद्दश अचिन्त्य वेग से
प्लावित कर शून्यता को
दिशा विदिशा में,
तमाधन अन्तहीन आकाश के वक्ष स्थल में
अकस्मात् मैंने किया अभ्युत्थान
असीम सृष्टि के यज्ञ में क्षणिक स्फुलिंग समान
धारावा ही शताब्दी के इतिहास मेें।
आया मैं उस पृथ्वी पर जहाँ कल्पों तक
प्राण पकड़ने समुद्र गर्भ से उठकर
जड़ के विराट् अंक में
उद्घाटित किया है अपना निगूढ़ परिचय
शाखायित कर रूप रूपान्तर में आश्चर्यमय।
असम्पूर्ण अस्तित्व की मोहाविष्ट छाया ने
आच्छन्न किया था पशु लोक को दीर्घ काल तक;
किसकी एकाग्र प्रतीक्षा में
असंख्य दिन रात्रि के अवसान पर
आया मन्थर गमन में
मानव प्राण रंगभूमि पर ?
नूतन-नूतन दीप जल उठते है एक एककर,
नूतन-नूतन अर्थ पा रही वाणी है;
अपूर्व आलोक में
मनुष्य देखता है अपना अपूर्व भविष्य रूप,
पृथ्वी के रंग मंच पर
धीरे-धीरे चल रहा है प्रकाश नाटय
अंक-अंक में चैतन्य का
मैं भी हूं नाटक का पात्र एक
पहने साज नाटकीय।
मेरा भी आह्यन था यवनि का हटाने के काम में,
परम विस्मय है मेरे लिए।
सावित्री धरित्री यह, आत्मा का मर्त्य निकेतन,
भूमि पर्वत समुद्र
कैसा गूढ़ संकल्प ले करते हैं सूर्य प्रदक्षिण-
इसी रहस्य सूत्र में गुंथा आया था
मैं भी अस्सी वर्ष पहले,
चला चला जाऊंगा कुछ वर्ष बाद।