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जीवन के उत्तरार्ध में आत्महत्या / मृदुला सिंह

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देवी का डोला उतरा था जिस दिन मेरे गाँव में
ठहर गई हैं वे भोली स्मृतियाँ मन के किसी कोनें में
गृहप्रवेश में नैहर की तरफ उलचे चावल से कुछ बचाये दाने आँचर में बाँधे
चल रही थी वह सुख को थामे
कोहबर में लिया था संकल्प
कि होम देगी अपना जीवन
स्त्री धर्म के निर्वाह में

जब वह गाती थी कजरी
बहता था सावन उसके कंठ से
लबालब भरे ताल को पार कर
अक्सर आती थी
लिखाने चिट्ठी मेरे पास
परनाम बाबू जी!
एहिजा सब ठीक बा...
रऊआ आपन ध्यान राखब
लिखाते फफक उठती वह
भर भर जाती थी उसकी आंख
मेरे बचपन की कलम थी
सूख जाती थी उसकी स्याही
देवी के दुखों के ताप से
अधूरी रह जाती थी हर बार पाती

वह काठ पात जोड़ सिरजती रही
ससुराल की दरकती जमीन
नशेड़ी पति और पुत्र के गले का धुंआ
उतरता रहा उसके फेफड़े पर
उलाहने का लोटा भर जल
रोज चढ़ाती थी शिवलिंग पर
महादेव को अर्पित
बेल पत्र में एक भी छिद्र से
हो सकता था अनिष्ट परिवार का
चुनती रही बेल के साबुत पत्ते और बड़ा होता रहा करेजे का घाव

गांव के बिछोह में
देवी का विछोह भी सालता रहा है
मुझे साल दर साल
वह मेरे अवचेतन में
करती रही है बराबर आवाजाही
साग सालन कढ़ी रांधते
उसके नेह का स्वाद संजो के रखा है मैंने
डायरियों में फूल की तरह

फागुन की एक काली रात
जब फोन पर उसकी बहू ने कहा था
अम्मा आग लगा ली थीं
नही रहीं इस दुनिया में
जैसे सहसा छूट गया हो उसका आँचर

जिसे पकड़ी रही मेरी उंगलियाँ
छुटपन के दिनों से
इस उम्र में देवी ने आत्महत्या की
नही! वह तो जानती नहीं थी हिंसा
तो क्या वह प्रतिरोध करने लगी थी
स्त्री धर्म का कांवर
जीवन के उत्तरार्ध में उतार फेंका था
पीड़ा बड़ी हो गई थी जीवन से शायद
इसीलिए मारी गई

सहा बहुत दुख अम्मा नें
अंतिम संस्कार
इलाहाबाद के गंगा घाट पर होना कहाँ नसीब होता है सब को
बहुत भाग्यवान थीं अम्मा!
उसकी बहू ने कहा था
सच! कितनी भाग्यशाली थी देवी
जीते जी मरती रही
मरकर मुक्त हो गई
जीवन और स्त्री जीवन की पीड़ा से