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जीवन के उत्थान पतन / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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जीवन के उत्थान पतन के क्रम को भी मैंने देखा है
दुर्बलतावश होने वाले भ्रम को भी मैंने देखा है
देखे हैं शत शत सपने, फिर देखी हैं उद्दाम लहर भी
अमिय स्वाद यदि चख पाया तो चखा कभी दो घूंट जहर भी
सौ-सौ अरमानों को छोटे प्राणों में पलते देखा है
अंगारों पर चलते-चलते लाखों को बलते देखा है
मुझको भी है चाह चलूँ, जूझूँ जीवन के संघर्षों से
करता हूँ अभ्यास आज से नहीं, आज कितने वर्षों से
साथी तुम चिनगारी फूँको, मैं तो ज्वलित अमिट ज्वाला हूँ
जीवन पथ पर गिरते-पड़ते मरकर भी जीनेवाला हूँ
सजे हुए उपवन में भी कुछ फूलों को झड़ते देखा है
कितनी उज्ज्वल प्रतिभाओं को कूड़ों में सड़ते देखा है
तो फिर इसकी चिन्ता क्या हो, जीवन के कितने अनुभव हैं
बुद्धि, विवेक, ज्ञान औ’ चिन्तन, कितने ही अनुपम वेभव हैं
इनका एक भरोसा साथी! रख, मन में आगे बढ़ना है
विजित हिमालय पर मत पूछो, उससे भी ऊपर चढ़ना है
सच पूछो तो कर्म-भूमि में, केवल श्रम का ही लेखा है
जीवन के उत्थान पतन के क्रम को भी मैंने देखा है