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जीवन के मंच पर / सरस्वती माथुर
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शहर की रोशनियों पर
टपक रही थी रात
दूर तक पसरे से पेड़ों पर
हरी परछाईयां समेटती
स्मृतियों की रेलगाड़ी
गुजर रही थी
अतीत के पहाड़ों पर
फेंकती हुई ताम्बई रंग
कुछ उन्मुक्त सी मैं
आकाश में
पंछियों को देखती रही
जो परियों की तरह
उड़ रहे थे
सोचती रही मैं
अतीत अपना रहस्य
कभी नहीं खोलता
क्यों हम फ़िज़ूल ही
स्मृतियों को बुलाते हैं
एक आँगन ले आते हैं
भूले बिसरे लोग बिठा कर
उनके साथ ,बतियाते, हँसते हैं
गाहे- बगाहे यादों के झरोखे
खोलते बंद करते रहते हैं
जीवन के अनखुले मंच पर
चेहरे दर्ज कराते हैं
ठहरी हुई जिंदगी में
न जाने क्यो
अपनी तसल्ली के लिये
कठपुतलियां नचाते हैं !